कौशलेन्द्र झा
राजनीति बामपंथ की हो या दक्षिणपंथ की। पर, राजनीति तो राष्ट्र के लिए ही होनी चाहिए। कही, ऐसा तो नही कि बाम और दक्षिण वाले अपने अपने लिए दो अलग राष्ट्र चाहतें हो? हो सकता है कि इसके बाद कट्टरता और समरशता के नाम पर भी बंटबारे की मांग उठने लगे। कही, धर्म या जाति को आधार बना कर राष्ट्र के बंटबारे की योजना तो नही है? हालात यही रहा तो आने वाले दिनो में कोई अपने लाभ के लिए महिला और पुरुष के नाम पर भी दो राष्ट्र बनाने की मांग कर दे तो, किसी को आश्चर्य नही होगा।
सोचिए, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर राष्ट्र के टुकड़े टुकड़े करने की खुलेआम नारेबाजी और एक आतंकवादी का शहादत समारोह भारत के अतिरिक्त किसी और देश में होता तो क्या होता? क्या पाकिस्तान में कोई भारत जिंदावाद का नारा लगा सकता है? आपको याद ही होगा कि 1962 में चीन भारत युद्ध के बाद भी यहां चीन जिंदावाद के नारे लगाने वाले करीब 4 हजार लोगो को जेल भेजा गया था। क्या कभी आपने सुना है कि चीन में भारत जिंदावाद का नारा लगा हो? क्यों हम अपने हाथों से अपना घर तबाह करना चाहतें है? क्या यही राजनीति है? सोचिए, शरहद पर तैनात सैनिक जब अपने ही कथित रहनुमाओं की बातें सुनते होंगे तो उन पर क्या असर होता होगा? आखिरकार हम कब तक दक्षिणपंथ और बामपंथ के बीच, उनके नफा नुकसान के लिए पिसते रहेंगे?
मुझे नही पता है कि इस राजनीति का लाभ दक्षिणपंथ को होगा या बामपंथ को? पर, राष्ट्र को इसका नुकसान होना तय हो गया है। राजनीति का आलम ये हैं कि यहां लाश की जाति पता करने के बाद तय होता है कि आंसू बहाने में लाभ होने वाला है या चुप रहने में? सियाचिन के शहीदो को श्रद्धांजलि देने में अधिक लाभ है या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित राष्ट्र बिरोधी को शहीद बताने में अधिक लाभ होगा? दरअसल, कतिपय कारणो से हमारी बंटी हुई जन भावना हमें तमाशबीन रहने को विवश करती है। नतीजा, राजीतिक लाभ हेतु थोड़े से लोग हमे 16 टुकड़ों में बांट देने का धमकी देकर उल्टे गुनाहगार भी हमी को बता देतें हैं। आखिर कब तक हमारे अपने ही अपनो को बेआबरु करते रहेंगे? क्या यही है हमारी सात दशक पुरानी आजादी है…?
Discover more from
Subscribe to get the latest posts sent to your email.