हिन्द महासागर में महाशक्तियों का हस्तक्षेप घातक 

राजकिशोर प्रसाद
द्वितीय विश्व युद्व के पूर्व हिन्द महासागर को ब्रिटेन का झील कहा जाता था।  किन्तु, युद्ध समाप्ति के बाद ब्रिटेन के प्रभुत्व में ह्रास होने लगा। जिससे उसके उपनिवेश एक एक कर स्वत्रंत्र होने लगे। फलस्वरूप यह क्षेत्र महाशक्तियों की राजनीति का केंद्र बिंदु बन गया। यहां अमरेकी साम्राज्यवादी हित बढ़ने लगे। शीत युद्ध का विकास होने लगा। साथ ही महाशक्तियों के नौ सेना का जमावाड़ा शुरू हो गया। वर्तमान में हिन्द महासागर में 181 विदेशी युद्धपोत तैनात है। इसमें रूस के 40, बतरिटें के 18 और फ़्रांस के 23 युद्धपोत शामिल है।
सामरिक दृष्टि से हिंद महासागर एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ से दक्षिणी गोलार्द्ध के सभी देशो पर दृष्टि रखी जा सकती है। लाल सागर, अरब सागर, फारस की खाड़ी, बंगाल खाड़ी, मलक्का जलडमरू मध्य, होर्मुज जलडमरू मध्य आदि ऐसे क्षेत्र है जहाँ पर किसी भी शक्ति का अधिकार सम्पूर्ण तटीय क्षेत्रो को प्रभावित कर सकता है। अमेरिका के हिन्द महासागर अड्डो में, डियागोगार्शिय सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
आर्थिक दृष्टि से हिन्द महासागर अनेक खनिजो का अपार भण्डार, अपने गर्भ में समेटे बैठा है। विश्व जहाजरानी व्यापार का एक चौथाई  हिद महासागर से गुजरता है। औसतन 60 हजार जहाज़ प्रति वर्ष  इस  क्षेत्र से गुजरता है। भारत दक्षिणी एशिया का प्रमुख देश होने के आलावा गुटनिरपेक्ष आंदोलन का मुखिया रहा है। हिंद महासागर में लगातार महाशक्तियों के बढ़ रहे सैन्यीकरण पर भारत में चिंता व्याप्त हो गया है। क्योंकि भारत के व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षात्मक और आर्थिक हित हिन्द महासागर में शांति के स्थायित्व पर टिका हुआ है।
सीमा प्रहरी, भारतीय द्वीपो की सुरक्षा, समुद्री व वायु मार्ग, समुद्री सीमा, औधोगिक व सांस्कृतिक केन्द्रो की रक्षा, भारतीय प्रतिरक्षा, खनिज पदार्थ और मत्स्य पालन व सैन्यकरण से खतरा के लिये हिंद महासागर में शांति भारत के लिये जरूरी है। शांति के लिये भारत ने सर्वप्रथम 1964 में गुटनिरपेक्ष देशो के द्वितीय सम्मेलन के दौरान श्रीलंका में अपना प्रस्ताव रखा था। फिर 1970 में लुसाका में हुये गुटनिरपेक्ष के तृतीय शिखर सम्मेलन में प्रस्ताव रखा गया। इसके बाद 1971 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिन्द महासागर को शांति क्षेत्र घोषित करने के प्रस्ताव पर मुहर लग गई। इसमें भारत सहित 13 देशो ने अपनी सहमति दिखाई। वर्ष 2002 में और 2005 में भी इसके लिये गुटनिरपेक्ष देशो ने पहल की। किन्तु विश्व के महाशक्तिशाली देशो ने अपनी वर्चस्व और अपनी हित के खातिर इस पर पूर्ण  रूपेण अमल से अभी तक परहेज कर रहे है।

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