कौशलेन्द्र झा
सूरज की लालिमा अभी छटी भी नही थी और नेताजी का आगमन हो गया। कोई सुबह की अंगराई भर रहा था और कोई अपने इष्ट को याद करके दिन की शुरूआत करना चाहता था।
वहीं, नेताजी का अपना अलग ही एजेंडा है। अगड़ी- पिछड़ी का एजेंडा, दलित और गैर दलित का एजेंडा और इससे भी बढ़ कर कथित सेक्यूलरवाद का एजेंडा। बीच- बीच में नेताजी… मनुवाद, ब्राह्मणवाद, जातिवाद, सामंतवाद और समाजवाद की खिचड़ी भी बड़ी आसानी से पका लेते हैं। अचानक विषय परिवर्तन होता है। चाय की छोटी सी दुकान पर नेताजी के सामने बैठे लोगो को नेताजी अब गरीबी का कारण समझाना शुरू करतें हैं।
गुमराह करके बन रहें है स्वयंभू नेता
सरकार को पूंजीपतियों का हितैसी होने का तर्क, जब कम पढ़े लिखे लोगो के पल्ले नही पडा तो नेताजी ने रंग बदला और एक बार फिर से जातिवाद की जहर उगलना शुरू…। आरक्षण से लेकर समाजिक तानाबाना तक और जमींदारी प्रथा से लेकर समाजवाद तक… एक और लम्बा प्रवचन। आरक्षण को खत्म करने की कथित साजिश हो या संविधान खतरे में… नेताजी ने लोगो को गुमराह करने की कोई कसर बाकी नही छोड़ी। खैर, अपनी उंची पहुंच और रसूख का हवाला देने का और कोई लाभ हो या नही हो पर, नेताजी को मुफ्त का चाय और बिस्कुट जरुर मिल गया।
समाज को तोड़ कर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने की जुगत
सवाल उठता है कि इतना सभी कुछ करने के बाद भी नेताजी का दर्जा, दोयम ही क्यों रह गए? ट्वीटर, फेसबुक और व्हाट्सएप का ग्रुप बना कर जहर उगलने वाले इनसे आगे कैसे बढ़ गए? इन्हीं सवालो के पीछे छिपा है, भारत की मौजूदा राजनीति का तानाबाना। सत्ता के खातिर समाज को तोडने और तथ्यों को तोड़ मरोर कर खुद को वर्ग विशेष का मसीहा बनने की राजनीति। विचारधाराओ के नाम पर नकारात्मक जहर उगलने की राजनीति और समाज में घोर नफरत और कटुता फैलाने की राजनीति। गांव से लेकर राष्ट्रीय राजनीति तक की, आज यही हकीकत बन चुकी है।
जातिवाद और धर्मिक उन्माद बना मार्ग
गौर से देंखे तो भारत की राजनीति, विकासवाद से बहुत दूर निकल चुका है। आज भारत में सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लिए दो ही मार्ग शेष बचे है। एक जाजिवाद का और दूसरा धार्मिक उन्माद का। विकासवाद तो महज एक मुखौटा बन कर रह गया है। नतीजा, आज का हमारा समाजिक तानाबाना खंड- खंड होने के कगार पर है। समाजिक तनाव चरम पर है और हम अकारण ही एक दूसरे को हिकारत भरी नजरो से देखने लगे है।
मौजूदा राजनीति को समझने का वक्त आ गया
सवाल उठना लाजमी है कि क्या इसी को राजनीति मान लिया जाए। क्या अपनी कमियों को दूसरो पर थोप देना ही राजनीति है? यदि नही तो, आजादी के सात दशक बाद भी देश में मौजूद गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी और जातीय तनाव के लिए जिम्मेदार कौन है? जिस सरकारी धन को हमारे ही रहनुमाओं ने लूटा। दरअसल, वह राशि किसके विकास पर खर्च होना था? ऐसे दर्जनो सवाल है, जिसका जवाब अब हमीं को ढ़ूढ़ना पड़ेगा। यकीन मानिये, आप जिस रोज इन सवालो का हकीकत समझ जायेंगे। उसी रोज से हमारे देश की राजनीति एक बार फिर से विकासवाद की राह पकड़ लेगा।
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