भारत में नील की खेती को गुलामी का प्रतीक माना जाता है
भारत में गुलामी का प्रतीक बन चुकी नील खेती एक बार फिर से शुरू करने की तैयारी की जा रही है। वह भी बिहार के चंपारण में। दरअसल, चंपारण सत्याग्रह के करीब सौ साल बाद बिहार में नील की खेती लौट रही है। ब्रिटिश काल में यह खेती जुल्म व शोषण का प्रतीक बन गई थी। लेकिन बदले हालात में किसानों ने अधिक आमदनी की गरज से नील का खेती शुरू करने का निर्णय लिया है।
दो किसानो ने किया आगाज
बिहार के भोजपुर जिला अन्तर्गत शाहपुर प्रखंड में इस साल पहली बार दो किसानों ने एक-एक एकड़ में नील की खेती की हुई है। अप्रैल के पहले हफ्ते में बोए बीज से फसल तैयार होने के बाद करीब तीन माह पर इसकी पहली कटिंग की गई है। सरना गांव के किसानो की माने तो काफी कम लागत में बेहतर उत्पादन से वे बेहद खुश हैं। एक एकड़ में करीब सात क्विंटल सूखी पत्तियों का उत्पादन हुआ है। यह माल केरल की कंपनी ले जाएगी। किसानों ने नील उत्पादन से जुड़ी केरल की एक कंपनी से करार किया है। कंपनी ने ही किसानों को बीज उपलब्ध कराया था। उत्पादन के बाद करीब 60 रुपये किलो की दर से सूखी पत्तियां खरीदने का भरोसा दिया गया है।
दुनिया के कई देशो में है नील की मांग
नील की बढ़ती मांग के मद्देनजर भारत समेत विभिन्न देशों में नील की खेती फिर से शुरू होने के आसार है। जानकार बतातें हैं कि विश्व भर में प्राकृतिक नील की मांग बढ़ती जा रही है। बाजार के इस रुझान ने ही किसानों को नील की खेती की ओर फिर से आकर्षित किया है। वहीं नील के पौधों के जड़ों की गांठों में रहने वाले बैक्टीरिया वायुमंडलीय नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलकर मिट्टी की उत्पादकता को संरक्षित करते हैं। किसान इसका उपयोग जैविक खाद के तौर पर भी कर सकते हैं।
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